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आलोचना

आकाश की कोख फट रही है

आनंद वर्धन


एक साहित्यिक की डायरी में मुक्तिबोध ने लिखा है कि - ''कथाकार यदि सचमुच जीवन का गहरा और व्यापक ज्ञान रखता है तो वह प्रसंगस्थिति में बद्ध मनुष्य की संवेदनात्मक प्रतिक्रियाओं को ही महत्व नहीं देगा, वरन उस स्थिति से संबंध रखने वाले जो वस्तु सत्य हैं उनको बनाने वाले तत्वों पर अर्थात व्यक्ति स्वभाव की विशेषताओं, वास्तविकता के पेचीदगियों और अब तक चलते आये इन सबके विकास-क्रम पर, इन सब पर अवश्य ही ध्यान देकर इस प्रसंगस्थिति के वस्तुसत्य के ताने-बाने प्रस्तुत करेगा और इस प्रकार व्यक्ति समस्या को मानव समस्या बनाकर एक व्यापकतर पार्श्वभूमि में उसे उपस्थित करेगा।''

मुक्तिबोध की यह टिप्पणी कथाकार के परकाया प्रवेश की ओर संकेत करती है। हृषीकेश सुलभ कहानियाँ गढ़ते समय हमें यही अनुभूत कराते हैं। उनका नवीनतम कहानी संग्रह 'तूती की आवाज' दरअसल पूर्व प्रकाशित तीन कथा संकलनों 'पथरकट', वधस्थल से छलाँग', और 'बँधा है काल' की बाईस कहानियों की पुनर्प्रस्तुति है। बकौल हृषीकेश सुलभ ये कहानियाँ सन् 1976 से 2000 के बीच प्रकाशित कहानियाँ हैं। पचीस वर्षों के दीर्घ वितान में सिरजी इन बाईस कहानियों की जमीन कमोबेश गँवई है। नगर या महानगर के नाम पर छपरा या पटना जैसी जगहें हैं जो शेष भारत में गाँव के ही अधिक करीब मानी जाती रही हैं। यह अलग बात है कि संवेदनाशीलता के स्तर पर यह गँवई पृष्ठभूमि न केवल अधिक गर्माहट लिए हुए हैं बल्कि लोक की मार्मिक छवियाँ भी समेटे हुए है।

हृषीकेश सुलभ की ये कहानियाँ यथार्थवादी परंपरा की कड़ी के रूप में देखी जानी चाहिए। बल्कि यों कहें कि प्रेमचंदीय कथाभूमि और रेणु की रचनाशीलता के बीच सुलभ की कहानियों का तानाबाना बुना हुआ है। इन कहानियों में जीवन का संघर्ष, सुख-दुख, आशा-निराशा, विकृतियाँ, विसंगतियाँ और रुदन के साथ-साथ आशा की झिलमिलाती लौ भी है। संग्रह की पहली कहानी व्यासब्रह्म पंडितपुर गाँव के व्यास बिहारी मिसिर के इर्द-गिर्द घूमती है जिन्होंने अपने यौवन के दिनों में खूब खेला-खाया। ये उस वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं जिनके लिए छोटी जातियों के लोग तुच्छ सेवक और उनकी स्त्रियाँ चिरभोग्या रही हैं। वही व्यास बाबा आज गाँव की बदलती बयार से खिन्न हैं। वे निम्नतर जातियों का सिर उठाना सहन नहीं कर पाते और सोचते हैं - ''बदल गया है समय। यही बदला हुआ समय फन निकालकर उनके सामने खड़ा फुँककार छोड़ रहा है।''

जिन ब्राह्मण परिवारों ने पूरे गाँव पर राज्य किया था उन्हीं के परिवारों की पैंतीस जानें सामूहिक नरसंहार में मारी गईं। व्यास बाबा के जवान बेटे भी उनमें शामिल थे। इन्हीं व्यास बाबा की विधवा बहू के संबंध निचली जाति के युवक से हो जाते हैं। अंत में व्यास बाबा आत्महत्या कर लेते हैं और उन्हें गाँववाले ब्रह्म बना डालते हैं।

सामूहिक नरसंहार का दृश्य 'रागरुदन' में भी उभरकर आता है। अपनी आजीविका पर प्रहार होते देख दुसाध एक जुट होते हैं और बबुआन टोला के मालिक उनका सामूहिक संहार करते हैं। मनुष्य जाति की इस हत्यारी आदिम प्रवृत्ति की उपस्थिति को कथाकार ने अलग अलग रूपों में देखा है और अपनी कहानियों में उसे चित्रित किया है। कहीं ये हत्याएँ राजनैतिक वर्चस्व के लिए की जाती है, कहीं आर्थिक वर्चस्व के लिए और कहीं अपने को पाक दामन बनाए रखने के लिए।

यहाँ हमें 'कलंक मुक्ति' के नायक की याद आती है जो अपने यहाँ काम करने वाली निश्छल मालती की देह को भोगता है लेकिन उसके गर्भवती होने पर वह शहरी बाबू भयभीत हो जाता है कि यदि इस बच्चे ने जन्म ले लिया तो वह भी निम्नवर्ग की नियति को प्राप्त होगा और उस भ्रूण की हत्या करवा देता है जबकि निश्छल मालती तो मात्र मातृत्व का सुख प्राप्त करना चाहती थी। अंततः मालती पागल हो जाती है और वह कलंक से मुक्ति पा लेता है।

हृषीकेश सुलभ की कहानियों में अनेक विद्रूप स्थितियाँ मुहँ चिढ़ाती नजर आती हैं। ऐसी ही एक कहानी है 'श्राद्ध' जिसमें शोषक वर्ग की शोषितों के प्रति हृदयहीनता का कुत्सित भाव दिखाई देता है। भैरो बाबू का बेटा किरांती सिंह नपुसंक है। फिर भी उसकी माँ मनौती मानती है कि किरांती को अगर बाल-बच्चा हुआ तो छठियार के दिन साँड़ दगवा कर छोड़ दूँगी' वह अपने बेटे की दूसरी शादी की योजना बनाती है। किरांती की बहू आसन्न संकट को देख चुपचाप सोहरइया कहार को संबंध बनाने पर मजबूर करती है और पाँव भारी होने के महीने भर बाद सोहरइया को जहर देकर मार दिया जाता है। इधर छठियार के दिन सोहरइया के बछड़े को खुलवा लिया जाता है। वह छुट्टा साँड़ भी भैरो बाबू से कम नहीं है।

धानुक टोला के नौजवान मँगरु की मौत से गुस्साये साँड़ को चुपचाप मार डालते हैं। उनका यह गुस्सा उच्चवर्ग से प्रतिशोध का प्रतीक है। भैरो साँड़ की हत्या को अपनी अस्मिता पर आघात मानकर पुलिस बुलाता है ''और जब तेरह दिनों बाद साँड़ का श्राद्ध हुआ तो गाँव के कई लोग जेल में थे। साँड़ के श्राद्ध में इधर नाचगाना हो रहा है और उधर धानुक टोला में सभा जहाँ रामबिरिछ काका बोले रहे थे - अब इस जिनगी में चाहे जो भी देखना-भोगना पड़े पर मरते दम तक जुध करना है।''

दलितों के एकजुट होने की धमक इधर भारतीय समाज में तेजी से सुनाई पड़ी है। चाहे धानुक हों या दुसाध, पत्थरकट हों या मुसहर ये सभी जातियों सुलभ की कहानियों में अपने सारे रंगों और संघर्षों के साथ उपस्थित हैं। 'पत्थरकट' कहानी में शानुर चीखता है - ''हम पथरकट हैं दद्दा। रोना बंद करो। सारी उमर रोते हुए गुजर गई। हम कहीं नहीं जाएँगे।"

यथार्थ के विभिन्न स्तरों के बीच से अंकुआती हुई अलग-अलग स्थितियाँ चित्रित करती हुई सुलभ की कहानियाँ मार्मिकता के नए आयाम उद्घाटित करती हैं। हालाँकि कहीं-कहीं विभिन्न कहानियों के पात्र और स्थितियाँ अपने-आप को दोहराते हुए भी नजर आते हैं लेकिन उनकी भँगिमाएँ अलग अलग हैं। हृषीकेश सुलभ की कहानियों में राजनीति और प्रेम से उपजी हुई अनेक स्थितियेँ को हम अलग अलग रूप में देखते हैं। जहाँ 'दुगुन में बजता तबला' और 'पदासीन' कहानियाँ तत्कालीन राजनीति पर करारा व्यंग्य है वहीं 'वधस्थल से छलाँग' जैसी कथा पत्रकारिता जगत का एक ऐसा चेहरा सामने लाती है जिससे आम आदमी अपरिचति जैसा है। 'यह गम विरले बूझे', 'पिकुलध्वनि', 'हवि', 'बूढ़ा वंश कबीर का' 'बडे राजकुमार' और 'जब तवक्को ही उठ गई गालिब' जैसी कहानियों में प्रेम के अलग-अलग रूप दिखाई देते हैं। जहाँ 'पिकुलध्वनि' में अलग-अलग पात्र प्रेम की स्थितियों को अपने-अपने ढंग से परखते और जीते हैं वहीं 'यह गम बिरले बूझे' का नायक भी कुछ ऐसी अबूझ स्थिति में उलझा है जिसे प्रेम कहा जा सकता है। 'जब तवक्को ही उठ गई गालिब' का क्रांतिकारी नायक प्रतोष पागलखाने में भर्ती हो जाता है और अपने मित्र अंतू को अपने प्रेम के बारे में बताया हुए कह उठता है ''मैं भी अपने राजनैतिक जीवन में, हाँ शायद पहली बार जीवन की सुगंध को महसूस कर रहा था। लंबे समय के बाद भावना के बीज अकुराने लगे थे।" लेकिन उसी प्रतोष की प्रेमिका को उसी की पार्टी के लोग उनके विवाह के ठीक एक सप्ताह पहले मार डालते हैं। 'रक्तवन्या' की नायिका केया दास का प्रेम बार बार उमगने से पहले ही कभी दंगों की भेंट चढ़ जाता है और कभी सफेदपोश वहशी जानवरों की।

'हवि' और 'बूड़ा वंश कबीर का' की नायिकाएँ मुस्लिम समाज से हैं और नायक गैर मुस्लिम। 'हवि' की नायिका गज़ाला 'आषाढ़ का एक दिन' की रिहर्सल करते करते कब मल्लिका बन गई यह नायक को पता ही नहीं चला। वह बार बार उसे आत्मसीमित कालिदास कहती है और अपने निकाह से कुछ दिन पहले उसी आत्मसीमित कालिदास से माँगती है - ''मैं अपनी मौत से पहले सिर्फ एक रात... सिर्फ एक रात अपनी आँखों में सपने भरकर गहरी नींद सोना चाहती हूँ।'' निकाह और एक बेटी के जन्म के बाद बेगम गज़ाला को उसका शौहर तलाक दे देता है और इक्कीस साल के बाद फिर से नायक के सामने गज़ाला का खत लिए उसकी बेटी मल्लिका खड़ी दिखती है। खत के आखिरी हिस्से में गज़ाला ने लिखा था - ''मैं थियेटर यज्ञ के लिए हवि भेज रही हूँ। मल्लिका अब तुम्हारे साथ रहेगी अगर तुम स्वीकार करो तो...।''

हिंदी की गिनी चुनी प्रेमकथाओं में हवि जैसी कहानी अपनी अलग जगह बनाती दिखती है। 'बूड़ा वंश कबीर का' इसी संग्रह की एक अन्य प्रेमकथा है जिसमें दीनहीन लटुरी मिसिर परित्यक्ता फरीदन को लेकर भाग जाता है और गाँव वाले देखते रह जाते हैं। प्रेम ऐसी भयानक ताकत देता है जो किसी भी पहाड़ को दरका सकती है। यह कहानी इसका प्रमाण है।

हृषीकेश सुलभ की कहानियों में हिंदू मुस्लिम एकता और वैमनस्य दोनों के दृश्य समान रूप से मिलते हैं। संग्रह के शीर्षक कथा 'तूती की आवाज' में जहाँ बढ़ती हुई धर्मान्धता को शिवालय और मस्जिद के शिखरों पर बंधे लाउडस्पीकरों के प्रतीकों द्वारा रूपायित किया है वहीं 'एक और सुबह' में बदरुल और हराधन की मैत्री सारे सांप्रदायिक वैमनस्य से ऊपर नजर आती है। यही है जीवन के स्पंदन की असली आवाज।

गँवई मानसिकता मिट्टी से अपने लगाव को कभी नहीं छोड़ती। संग्रह की 'टापूटोल' कहानी का मोहम्मद आरिफ पनार नदी के पेट में सब कुछ चले जाने के बाद भी अपनी जमीन नहीं छोड़ना चाहता। उसके सारे साथी दिल्ली पंजाब जाने वाली बड़ी रेलगाड़ी पकड़कर जा चुके हैं लेकिन ''वह इसी पनार की गोद में रहेगा। जब सरकारी कागज में टापूटोल है ही नहीं तब जहाँ धरती खाली करेगी पनार वहीं बसाएगा अपने गाँव के लोगों के साथ अपना गाँव 'टापूटोल'।'' यहाँ हमें फिर से याद आते हैं रेणु। अपने रिपोर्ताज 'कुत्ते की आवाज' में वे बाढ़ के उस दृश्य को याद करते हैं जहाँ बाढ़ में घिरे लोग मचान पर ही नाच गा रहे हैं। रिलीफ की नाव में एक बीमार गाँव वाले के साथ जब उसका कुत्ता चढ़ आता है तब रिलीफ टीम के डॉक्टर कुकुर को ले जाने से मना कर देते हैं और वह बीमार गँवई यह कहकर नाव से उतर जाता है कि अगर हमारा कुकुर नहीं जाएगा तो हम भी नहीं जाएगा और उसका कुत्ता भी छपाक से पानी में कूद कर कहता है अगर हमारा मानुष नहीं जाएगा तो हम भी नहीं जाएगा। यही तो है मिट्टी से मिट्टी के लोगों का खाँटी जुड़ाव। 'अमली' कहानी में भी यही जुड़ाव दिखाई देता है। अमली की जमीन गाँव की राजनीति की भेंट चढ़ चुकी है लेकिन अमली गाँव का मोह नहीं छोड़ पाती। वह कभी अबरार खाँ के दरवाजे पर तो कभी महादेव राय के दरवाजे पर डोलती रहती है। उसने तो तब भी माटी का मोह नहीं छोड़ा था जब जुलाहा टोले के सभी लोग एक एक कर चले गए थे।

इन कहानियों में शोषण से पीड़ित उस चेहरे से भी हम परिचित होते हैं जिसने भूख के कारण अपनी संतान को भी पहचानने से इनकार कर दिया है। यह दारुण दृश्य 'कोखजली' कहानी में सहज ही देखा जा सकता है। हृषीकेश सुलभ की कहानियों की भाषा नए और टटके प्रतीकों और बिंबों को लेकर उगती दिखाई देती है। उनके ठेठ गाँव जवार के शब्द परिवेश को खड़ा करने में सक्षम हैं। रेणु ने कहीं कहा था - ''चिउरा, नया ताजा गुड़ और नए शब्द।'' रेणु की तरह सुलभ भी ताजे शब्दों की तूलिका से कहानी का कैनवास बहुरंगी बना देते हैं। गझिन, करियाना, मड़गीला, किरिया, छठियार, मेहरारु, टहकार और चुनमुन चिरइया जैसे शब्द जहाँ एक ओर कथा प्रवाह को गति देते हैं वहीं अनेक पात्रों द्वारा प्रयोग में लाई गई भोजपुरी की बोली बानी उसे नई जीवंतता प्रदान करती है। कहानियों में प्रयुक्त लोक धुनों की आवृत्ति पाठक के मन में उछाह भी भरती है और करुणा भी।

सुलभ की कहानियों में बार बार काव्यात्मक बिंब दिखते हैं जो आत्मीय भाव पैदा करने में सफल हैं। ये कहानी की शक्ति भी हैं और कहानी को बोझिल होने से बचाते हैं। नए प्रतीकों को गढ़ने में हृषीकेश सुलभ माहिर हैं। कुछ बानगी देखिए - ''साँझ गले में फाँसी का फंदा डालकर लटकी है'', ''अरसा बाद पाहुन की तरह हँसी की आवक हुई'', ''खंभे की छाया उनको बीच से बाँटती दीवार से चिपकी थी'', ''आकाश की कोख फट रही है'' आदि। इन जैसे ढेरों बिंब तूती की आवाज की कहानियों में दिखाई पड़ते हैं और इनके बीच एक हुलास भरी आवाज की मद्धिम गूँज अंतर्वाही नदी की तरह बहती रहती है। यही तो है जीवन की अंतिम साँस तक उसे जी लेने की अदम्य आकांक्षा जिसकी राह में रोड़े भी हैं और खाइयाँ भी, पर अंततः आकाश की कोख को फटना ही है।


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